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सोऽअ॒ग्निर्यो वसु॑र्गृ॒णे सं यमा॒य॑न्ति धे॒नवः॑। समर्व॑न्तो रघु॒द्रुवः॒ सꣳसु॑जा॒तासः॑ सू॒रय॒ऽइष॑ꣳ स्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र ॥४२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। अ॒ग्निः। यः। वसुः॑। गृ॒णे। सम्। यम्। आ॒यन्तीत्या॒ऽयन्ति॑। धे॒नवः॑। सम्। अर्व॑न्तः। र॒घु॒द्रुव॒ इति॑ रघु॒ऽद्रुवः॑। सम्। सु॒जा॒तास॒ इति॑ सुऽजा॒तासः॑। सू॒रयः॑। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:42


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यार्थी विद्वान् पुरुष ! जैसे मैं (यः) जो (वसुः) निवास का हेतु (अग्निः) अग्नि है, उस की (गृणे) अच्छे प्रकार स्तुति करता हूँ, (यम्) जिस को (धेनवः) वाणी (समायन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होती हैं और (रघुद्रुवः) धीरज से चलनेवाले (अर्वन्तः) प्रशंसित ज्ञानी (सुजातासः) अच्छे प्रकार विद्याओं में प्रसिद्ध (सूरयः) विद्वान् लोग (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने हारे विद्यार्थियों के लिये (इषम्) ज्ञान को (सम्) अच्छे प्रकार धारण करते हैं और जैसे (सः) वह पढ़ाने हारा ईश्वरादि पदार्थों के गुण-वर्णन करता है, वैसे तू भी इन पूर्वोक्तों को (समाभर) ज्ञान से धारण कर ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापकों को चाहिये कि जैसे गौएँ अपने बछरों को तृप्त करती हैं, वैसे विद्यार्थियों को प्रसन्न करें और जैसे घोड़े शीघ्र चल के पहुँचाते हैं, वैसे विद्यार्थियों को सब विद्याओं के पार शीघ्र पहुँचावें ॥४२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सः) (अग्निः) (यः) (वसुः) (गृणे) स्तुवे (सम्) (यम्) (आयन्ति) (धेनवः) वाण्यः (सम्) (अर्वन्तः) प्रशस्तविज्ञानवन्तः (रघुद्रुवः) ये रघु लघु द्रवन्ति गच्छन्ति ते। अत्र कपिलकादित्वात् [अ०वा०८.२.१८] लत्वम् (सम्) (सुजातासः) विद्यासु सुष्ठु जाताः प्रसिद्धाः (सूरयः) विद्वांसः (इषम्) ज्ञानम् (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (आ) (भर) ॥४२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्। यथाऽहं यो वसुरग्निरस्ति तं गृणे यं धेनवः समायन्ति, रघुद्रुवोऽर्वन्तः सुजातासः सूरयः स्तोतृभ्य इषं समाभरन्ति, स स्तौति च तथा त्वमेतानि समाभर ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापका यथा धेनवो वत्सान् प्रीणयन्ति तथा विद्यार्थिन आनन्दयेयुः। यथाऽश्वाः शीघ्रं गमयन्ति तथा सर्वविद्यापारगान् कुर्य्युः ॥४२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशा गाई आपल्या पाडसांना तृप्त करतात तसे अध्यापकांनी आपल्या विद्यार्थ्यांना तृप्त करावे. जसे घोडे गतिमान असून, योग्य ठिकाणी पोहोचवतात, तसे विद्यार्थ्यांना शीघ्रतेने सर्व विद्या शिकवून पारंगत करावे.